Sanskrit Gyan Jyotsna
Sanskrit is the most scientific, ancient and spiritual language. I will discuss the fundamentals of scientific ideas of veda, ayurveda, grammar, upanishads, natyashastra, kavyashastra, arthashastra, philosophy and spirituality as mentioned in sanskrit granths/books through my blogs and videos
पंचतंत्र का इतिहास -विश्व में पंचतंत्र की कहानियाँ कैसे फैलीं
भट्टनायक का रस सिद्धांत -भुक्तिवाद -काव्य प्रकाश के अनुसार
प्रो. कमलेशदत्त त्रिपाठी का जीवनवृत्त एवम् कर्तृत्व
श्री जयशंकर प्रसाद की " अयोध्या का उद्धार "कविता पर कालिदास का प्रभाव
हिंदी के मूर्धन्य कवियों में श्री जयशंकर प्रसाद का नाम अत्यधिक आदर के साथ लिया जाता है । वे छायावादी कवि हैं । प्रसाद जी की " कामायनी "हिंदी साहित्य में विशिष्ट स्थान रखती है । उन्होंने जो ख्याति काव्य के क्षेत्र में प्राप्त
की वही नाटकों, कहानियों, निबंध उपन्यास के क्षेत्र में भी प्राप्त की ।
जयशंकर प्रसाद की रचनाओं में लौकिक
जीवन की अनुभूतियों के साथ उनका चिंतन भी
समाहित था जो निःसंदेह उन्हें संस्कॄत ग्रंथों
के अध्ययन से प्राप्त हुआ था । “कामायनी “ जो प्रसाद जी की सर्वश्रेष्ठ कॄति है, का मूल स्रोत पौराणिक है किंतु उस कथा को प्रसाद जी ने अपने मौलिक चिंतन एवं कल्पना के समन्वय से ही पल्लवित किया है । कामायनी
की पांडुलिपि में प्राप्त संदर्भ संकेतों से स्पष्ट होता है कि उपनिषद , शतपथ ब्राह्मण , भागवत इत्यादि ग्रंथों का अध्ययन मात्र
ही प्रसाद जी ने नहीं किया अपितु इन पर लिखित भाष्य- उदाहरणार्थ सायण भाष्य का भी गहन
अध्ययन प्रसाद जी ने किया ।(1)
संस्कॄत ग्रंथों में भी जयशंकर प्रसाद, कालिदास से विशेष प्रभावित दिखाई पड़ते हैं । कालिदास के ऋतुसंहार, रघुवंशम् एवं अभिज्ञान शाकुन्तलम् पर आधारित अनेक कवितायें इसकी प्रमाण है । ऋतुसंहार के समान ही इन्होंने शरद(2) ,वर्षा(3), ग्रीष्म(4) ,बसंत(5) ,मेघ(6) इत्यादि पर कवितायें लिखी है ।
“ वन मिलन” (7) नामक कविता अभिज्ञान शाकुन्तलम् के सप्तम अंक पर आधारित है । इसी प्रकार “अयोघ्या का उद्धार “ (8) कविता कालिदास के रघुवंशम् के षोडश सर्ग पर आधारित है ।
प्रस्तुत शोधपत्र में मैं प्रसाद जी द्वारा
रचित “ अयोध्या का उद्धार “ नामक कविता पर कालिदास द्वारा रघुवंशम् के षोडश सर्ग में वार्णित “ कुश-कुमुदवती परिणय “ के कथानक का प्रभाव स्पष्ट करूंगी ।
महाराज रामचंद्र के परमधाम पधारने के पश्चात् कुश को कुशावती और लव को श्रावस्ती या शरावती राज्य मिला । अतएव अयोध्या नगरी वैभवहीन हो गई । वाल्मीकि रामायण के अनुसार (9) बाद में किसी ऋषभ नामक राजा के द्वारा उसे पुनः स्थापित करने का विवरण मिलता है किंतु महाकवि कालिदास ने अयोध्या का उद्धार कुश के द्वारा होना लिखा है । विद्वान् उत्तर कांड को प्रक्षिप्त मानते हैं अतएव यह संभावना की जा सकती है कि कालिदास के समय में ऋषभ के द्वारा अयोध्या का उद्धार होना प्रसिद्व न रहा हो ।
इस घटना का एतिहासिक महत्व कितना है यह नहीं कहा जा सकता किंतु प्रसाद जी ने कालिदास के वर्णन को ही प्रामाणिक मानते हुए उस कथानक का शतशः अनुसरण दिया है जिसका निरूपण एवं समानता द्रष्टव्य है ।
रघुवंशम्
के अनुसार लक्ष्मण के स्वर्गवासी हो जाने पर रामचंद्र ने कुश को कुशावती एवं लव को शरावती का राजा बनाया । तदनन्तर अग्निहोत्र की अग्नि आगे करके अपने भाईयों के साथ राम उत्तर की ओर चल पड़े । अयोध्यावासियों ने जब यह सुना तो वे भी प्रेमवश घरों को छोडकर उनके साथ हो लिए । तदनन्तर राम विमान पर चढकर स्वर्ग चले गये तथा सरयू को उन्होंने अपने पीछे आने वालों के लिये स्वर्ग की सीढी बना दिया अर्थात् जो सरयू में स्नान करता था वह तुरंत
स्वर्ग चला जाता था
इसलिये स्वर्ग में इतने लोग पहुंच गये कि सामर्थ्यशाली राम को देवपद प्राप्त अयोध्यावासियों को रहने के लिये एक दूसरा ही स्वर्ग बनाना पडा । परिणामस्वरूप
अयोध्या अनाथ हो गई। (10)
इसके पश्चात् कुमुदवती परिणय नामक षोडश सर्ग के अनुसार एक दिन आधी रात के समय जब शयनकक्ष में दीपक टिमटिमा रहा था और सब लोग सोये हुए
थे तब कुश को ऐसी
स्त्री दिखाई दी जिसे उन्होंने पहले कभी नहीं देखा था –“ कुश-कुमुदवती परिणय “ का वर्णन देखिये -
अथार्धरात्रे स्तिमितप्रदीपे शय्यागॄहे सुप्तजने प्रबुद्धः ।
कुशः प्रवासस्थकलत्रवेषामदृष्टपूर्वा वनितामपश्यत ।
रघु0 16/4
कालिदास द्वारा वार्णित उपर्युक़्त कथानक का अनुसरण प्रसाद जी ने “ अयोध्या का उद्धार “ में इस प्रकार किया है-
विविध चित्र बहु भांति के लगे
मणि जडाव चहुं ओर जो जगे ।
महल मांहि बिख्ररावती विभा
मधुर गन्धमय दीप की शिखा ।
कुशराज कुमार नींद में
सुख सोये शुचि सेज पै तहां ।
बिखरे चहु ओर पुष्प के
सुखम सौरभ पूर है जहां ।।......
पुतरी पुखराज की मनो
सुचि सांचे महं ढारि के बनी ।
उतरी कोउ देव-कामिनी
छवि मालिन्य विषाद सों सनी ।।
तत्पश्चात कालिदास के अनुसार कुश उससे बोले-तुम कौन हो ? तुम्हारे पति का क़्या नाम है और मेरे पास किस काम से आई हो ? लेकिन तुम यह समझकर कुछ मत कहना कि रघुवंशियों का चित्त पराई स्त्री की ओर आकॄष्ट नहीं होता – कालिदास कहते हैं -
का त्वं शुभे । कस्य परिग्रहो वा किं वा
मदभ्यागमकारणं ते
आचक्ष्व मत्वां वशिनां रघूणां मनः परस्त्रीविमुखप्रवॄतिः
।।
रघु0 16/8
प्रसाद जी ने ऐसा ही वर्णन इन शब्दों में किया है -
“ देवि । नाम निज धाम,
काम कौन ? मोते कहौ ।
अरू तुम येहि आराम-
मांहि आगमन किमि कियो ?
“ तुम रूप -निधान कामिनी
यह जैसी विमला सुयामिनी ।
रघुवंशहि जानिहो सही
परनारी पर दीठ दे नहीं ।।
“ तुम क़्यों बनी अति दीन ?
क़्यों मुख लखात मलीन ?
निज दुख मोंहि बताउ
कछु करहुं तासु उपाउ ।।
तदनन्तर स्त्री बोली- भगवान राम जब बैकुण्ठ जाने लगे तब इस निर्दोष अयोध्यापुरी के निवासियों को भी साथ लेते गये । हे राजन । मैं उसी अनाथिनी अयोध्यापुरी की अधिष्ठात्री देवी हूं । पहले सुशासन के कारण मैं इतनी ऐश्वर्यशालिनी हो गई थी कि मेरे आगे कुबेर की अलकापुरी भी फीकी लगती थी ।
इस प्रसंग में भी दोनों कवियों के वर्णन में साम्य
देखिये -
तमब्रवीत्सा गुरूणाsनवद्या या नीतपौरास्व पदोन्मुखेन ।
तस्याः पुरः सम्प्रति वीतनाथां जानीहि राजन्नधिदेवतां
माम ।।
वस्वौकसारामभिभूय साsहं सौराज्यबद्धोत्सवया विभूत्या ।
समग्रशक़्तौ त्वयि सूर्यवंश्ये सति प्रपन्ना
करूणामवस्थाम ।।
रघु0 16/9-10
अब प्रसाद जी द्वारा किया वर्णन देखिये -
“ तुम सुमति सुधारी ईश पीरा निवारी
अब सुनहु विचारी है, कथा जो हमारी ।।
“ सुख समॄद्धि सब भांति सो मुदा
रहत पूर नर नारि ये मुदा ।
अवध राज नगरी सुसोहती
लखत जाहि अलकाहु मोहती ।।
“ इक्ष्वाकु आदिक की विमल
कीरति दिगन्त प्रकासिता ।
सो भई नगरी नागकुल-
आधीन और विलासिता ।।
नहि सक़्यौ सहि जब दुःख
तब आई अहौ लै कै पता ।
सो मोहि जानहु हे नरेन्द्र ।
अवध नगर की देवता ।।
तत्पश्चात अयोध्या की देवी, अयोध्या का वर्णन अनेक उपमाओं के माध्यम से करती है कि वह अयोध्या पहले अत्यधिक वैभवशाली थी किंतु अब वह ऐसी श्रीहीन हो गई है । इसका भी प्रसाद जी ने उसी प्रकार अनुकरण किया है उदाहरणार्थ-
निशासु भास्वतकलनूपुराणां यः सञचरो s भूदभिसारिकाणाम्
नन्दन्मुखोल्काविचितामिषाभिः स वाह्रदयते राजपथः शिवाभिः
वही 16/12
अब प्रसाद जी द्वारा किया वर्णन देखिये -
जहं लख्यो विपुल मतंग
तुंग सदा झरै मदनीर को ।
तहं किमि लखै बहु बकत
व्यर्थ श्रॄगालिनी के भीर को ।।
अयोध्या का उद्धार
अन्त में कुमुदवती कहती है कि आप इस नयी राजधानी कुशावती को त्यागकर अपनी कुल परम्परा की राजधानी अयोध्या में चलकर निवास
करें । कुश ने उसकी
प्रार्थना स्वीकार करते हुए कहा कि ऐसा ही करेंगे ।
तदर्हसीमां वसातिं विसॄज्य मामभ्युपैतुं कुलराजधानीम ।
हित्वा तनुं कारणमानुषी तां यथा
गुरूस्ते परमात्ममूार्तिम
।।
तथेति तस्याः प्रणयं प्रतीतः
प्रत्यग्रहीत प्राग्रहरो रघूणाम ।
पूरप्यभिव्यक़्तमुखप्रसादा शरीर बन्धेन तिरोबभूव ।।
रघु0 16/22-23
अब प्रसाद जी द्वारा “ अयोध्या का उद्धार “ में किया वर्णन देखिये -
रघु दिलीप , अंज आदि नॄप ,
दशरथं राम उदार ।
पाल्यो जाको सदय है ,
तासु करहु उद्धार ।।
निज पूर्वज-गन की विमल
कीरति हू वचि जाय ।
कुमुद्वती सम सुन्दरी,
औरहु लाभ लखाय ।।
सुनि, बोले वरवीर
“ डरहुं न नेकहु चित्त में
धरे रहौ उर धीर,
काल्हि उबारौं अवध को “ ।।
“ अयोध्या का उद्धार “
रात की घटना राजा ने सबेरे सभा में ब्राह्मणों से कही जिसे सुनकर ब्राह्मणों ने कुश की प्रशंसा की । तदन्तर उन्होंने
कुशावती नगरी वेदपाठी ब्राह्मणों को दान करके दे दी और शुभ मुहूर्त में अयोध्या
की ओर चल पडे ।
कुशावती श्रोत्रियसात स कॄत्वा यात्रानुकुले s हनि सावरोधः ।
अनुद्रुतो वायुरिवाभ्रवॄन्दैः
सैन्यैरयोध्याभिमुखः प्रतस्थे ।।
रघु0 16/25
प्रसाद जी ने इस घटना का वर्णन निम्न
शब्दों में किया है-
भोर होत ही राजसभा में
बैठे रघुकुल राई ।
प्रजा, अमात्य आदि सबही ने
दियो अनेक बधाई ।।
श्रोत्रिय गनहि बुलाई ,सकल
निज राज दान कै दीन्हयो ।
और कटक सजि, अवध नगर
के हेतु पयानो कीन्हयो ।। “अयोध्या का उद्धार “
इसके पश्चात प्रसाद जी ने कालिदास के कथानक में थोडा परिवर्तन करके वर्णन किया है । यद्यपि कालिदास और जयशंकर प्रसाद दोनों का ही उद्देश्य
कुमुदवती के साथ कुश का परिणय है किंतु इस परिणय
के मध्य कथानक में थोडा परिवर्तन
दिखाई पडता है जो द्रष्टव्य है -
कालिदास के अनुसार कुश की आज्ञा से कारीगरों ने अयोध्या को नया रूप दे दिया तथा कुश अयोध्या के राजमहल में प्रविष्ट हो गये । एक दिन कुश अपनी
रानियों के साथ सरयू के जल मे विहार करने लगे । जल क्रीडा करते समय जैत्र आभूषण जो अगत्स्य ऋषि ने राम को तथा राम ने राज्य के साथ ही कुश को दिया
था पानी में गिर गया । उन्होंने सब धीवरों को वह आभूषण ढूढने की आज्ञा दी । बहुत परिश्रम करने पर भी आभूषण नहीं प्राप्त हुआ तब धीवरों ने कुश से कहा कि लगता है
कि इस जल में रहने वाले कुमुद नामक नाग ने उसे लोभवश
चुरा लिया है यह सुनते ही कुश क्रुद्ध हो गये और उन्हें गारूडास्त्र चढा लिया । तभी हाथ में वह आभूषण लिये तथा एक कन्या को आगे किये नागराज कुमुद बाहर निकला
तथा कुश को प्रणाम
कर कहने लगा कि यह कन्या गेंद खेल रही थी इसकी थपकी से
गेंद ऊपर उछल गई । उसे देखने के लिये
इसने ऊपर आंख उठाई
तो देखा कि आप का आभूषण नीचे चला आ रहा है बस इसने इसे पकड लिया अब आप इस आभूषण को धारण
करिये तथा मेरी छोटी बहन कुमुदवती जीवन भर आप की सेवा करके अपने
अपराध का मार्जन करना चाहती है अतएव आप इसे अपनी पत्नी के रूप में स्वीकार कर लें । तत्पश्चात कुमुदवती के साथ कुश
का परिणय हुआ तथा कुश पृथ्वी पर यथावत शासन करने लगे ।(11)
प्रसाद जी के अनुसार जब कुश की सेना
अवध की सीमा के समीप पहुंची तब उन्होंने कुमुद के पास अपने दूत को भेजा । कुमुद तुरंत ही सेना लेकर आ पहुंचे । दोनों सेनाओं के मध्य युद्ध होने लगा । कुश
के प्रभाव से हीन होकर कुमुद अत्यधिक
रमणीय कुमुदवती और धन रत्नादि साथ लेकर कुश के समीप जाकर बोले कि इससे विवाह कर राज्य लीजिये । तत्पश्चात कुश और कुमुदवती
का विवाह हुआ तथा सबके सन्ताप दूर करते हुए कुश सिंहासनारूढ़ हुए तथा अवध नगर में सुख एवं महासुषमा छा गई -
कुल लक्ष्मी परताप
लख्यो सबै सुखमय नगर ।
मिटयो सकल सन्ताप
बैठे सिंहासन तबै ।।
कुश कुमुद्वती को परिणय
सबको मन भायो ।
अवध नगर सुखसाज
महा सुखया सो छायो ।।
“ अयोध्या का उद्धार “
अतः स्पष्ट है कि कालिदास के अनुसार कुश के सिंहासनारूढ होने के पश्चात कुमुदवती से उनका परिणय हुआ किंतु प्रसाद जी के
अनुसार कुमुदवती से परिणय के पश्चात ही वे सिंहासनारूढ़ हुए ।
उपरोक़्त विवरण से स्पष्ट है कि
श्री जयशंकर प्रसाद पर कालिदास का स्पष्ट प्रभाव दिखाई पडता है । कालिदास
के समान ही प्रसाद जी ने काव्य , गीतिकाव्य एवं नाटक सभी विधाओं में रचना की । जहां कामायनी में पौराणिक आख्यानों एवं उद्धरणों को आधार बनाकर उसे कल्पना से पल्लवित पुष्पित किया है एवं वाल्मीकि रामायण की उपेक्षा
की है वही कालिदास की कथावस्तु शतशः
अनुसरण कर प्रसाद जी ने तूलिका के नये रंगों द्वारा चित्रित किया है जो
निाश्चित रूप से प्रसाद जी का कालिदास के प्रति सम्मान एवं श्रद्धाजंलि को अभिव्यक्त करता है ।
- -------- -
संदर्भ सूची- -
1. प्रसाद
ग्रंथावली – पृ नं0 402,403
लोकभारती प्रकाशन 15 ए महात्मा गांधी मार्ग इलाहाबाद 1977
2. वही चित्राधार-
शारदीय शोभा - पृ 42, 58
3. वही वर्षा - पृ 48
4. –वही “ -
कानन कुसुम ग्रीष्म का मध्याहन- पृ 163
5. - वही“ -कानन
कुसुम-नव बसंत पृ 159
6. - वही“ -कानन कुसुम-जलद आहवान - पृ 164
7. - वही“ -चित्राधार- पृ नं0 17
8. - वही“ -चित्राधार - पृ संख्या 8
9.वाल्मीकि रामायण
उत्तरकांड 111/10
10रधुवंशम 15/95-102
11.रघुवंशम 16/26-88
पुनर्नवा –अखिल भारतीय कालिदास समारोह के अवसर पर प्रकाशित स्मारिका २००९ ,
कालिदास संस्कृत अकादमी ,मध्य प्रदेश संस्कृति परिषद् ,उज्जैन से प्रकाशित
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