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पंचतंत्र का इतिहास -विश्व में पंचतंत्र की कहानियाँ कैसे फैलीं

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भट्टनायक का रस सिद्धांत -भुक्तिवाद -काव्य प्रकाश के अनुसार

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प्रो. कमलेशदत्त त्रिपाठी का जीवनवृत्त एवम् कर्तृत्व



         साहित्य अकादमी पुरस्कार से पुरस्कृत तथा विश्व विश्रुत कालिदास अकादमी (उज्जैन) के निदेशक के पद पर कार्यरत प्रो० कमलेश दत्त त्रिपाठी (1) देश विदेश में भारतीय विद्याविद और शास्त्रविद् के रूप में प्रख्यात  है । अत्यधिक शान्त एवं सरल स्वभाव वाले त्रिपाठी जी के तीक्ष्ण ज्ञान चक्षु, पाण्डित्यपूर्ण लेखनी, तेजस्वी व्यक्तित्व का प्रभाव उनके कार्यों में स्पष्ट परिलक्षित होता है । अपनी उल्लेखनीय साहित्य साधना एवं अप्रतिम सर्जनात्मक प्रतिभा से प्रोफेसर त्रिपाठी ने संस्कृत को समृद्ध कर जो प्रतिमान स्थापित किये हैं, वह उल्लेखनीय है। धर्म, दर्शन और व्याकरण पर उनका पूर्ण अधिकार रहा है।नाटयशास्त्र एवं संस्कृत रंगमंच को उन्होने पुनर्जीवन प्रदान किया है। विदेशों मे संस्कृत का प्रचार प्रसार करके ,उसे विस्तृत फलक पर ले जाने वाले प्रोफेसर त्रिपाठी महान साहित्यकार  एवं समीक्षक हैं ।

        सौन्दर्य शास्त्र, नाटयशास्त्र एवं संस्कृत रंगमंच के क्षेत्र में ,वे जीवन भर सक्रिय रहे । शास्त्र और प्रयोग दोनों में समान रूप से उनकी रूचि और गति रही है, शायद इसी कारण मध्यप्रदेश शासन ने सर्व प्रथम उन्हें 1981 में कालिदास अकादमी के निदेशक के रूप में आमंत्रित किया। जून1986 तक वे इस पद पर बने रहे । इस अवधि में उन्होने कालिदास अकादमी के कार्यक्षेत्र का परिकल्पन किया, जिससे अकादमी पूरे देश में ही नहीं, विदेश के मानचित्र पर भी अपना स्थान बना सकी।
             मध्यप्रदेश शासन द्वारा उन्हें दूसरी बार कालिदास अकादमी का निदेशक नियुक्त किया गया है । कालिदास को केन्द्र में रखकर व्यापक भारतीय सांस्कृतिक संदर्भो में उनका कार्य चल रहा है और वे कालिदास अकादमी को नई दिशा की ओर ले जा रहे हैं। इसके अतिरिक्त सम्प्रति वे काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के 'एमरेट्स' प्रोफेसर हैं ।
             इन उपलब्धियों के पीछे उनका गहन अध्ययन एवं अथक परिश्रम भी शामिल है । प्रो0 कमलेश दत्त त्रिपाठी का जन्म उत्तरप्रदेश के इलाहाबाद नगर के
उसी मोहल्ले में हुआ था ,जिसमें महामना मदन मोहन मालवीय का जन्म हुआ था । उन्होंने उत्तरप्रदेश के सबसे प्राचीन संस्कृत महाविद्यालयय धर्मज्ञान, उपदेश पाठशाला में पारम्परिक रीति से व्याकरण एवं धर्मशास्त्र विषयों मे शिक्षा प्राप्त कर संपूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय से उपर्युक्त दोनों विषयों में आचार्य की उपाधि प्राप्त की।इलाहाबाद विश्वविद्यालय के सुप्रसिद्ध विद्वान, प्रोफेसर क्षेत्रेशचन्द्र चटटोपाध्याय से वेद की शिक्षा प्राप्त की । धर्मशास्त्र की शिक्षा उन्होने प्रोफेसर भूपेन्द्रपति त्रिपाठी के चरणों में बैठकर प्राप्त की । काश्मीर शैव दर्शन एवं वाक्यपदीयम् का अनुशीलन मिथिला के प्रकाण्ड विद्वान महामहोपाध्याय पं0 रामेश्वर झा के सानिध्य में किया । इस प्रकार प्रोफेसर त्रिपाठी भारतीय विद्या की पारंपरिक एवं आधुनिक दोनों ही विधियों से शिक्षा प्राप्त की।वे समकालीन साहित्य और कला में चिन्तन की प्रवृतियों  के अधिगत विद्वान हैं ।इलाहाबाद विश्वविद्यालय से संबंद्ध कॉलेजों में संस्कृत भाषा और साहित्य का अध्यापन करने की अवधि में उन्होंने संस्कृत काव्यशास्त्र और धर्मशास्त्र का
गहन अध्ययन भी किया । पाणिनीय व्याकरण का उच्चतम अनुशीलन उन्होंने इसी अवधि में पूरा किया ।
 'पंडितराज जगन्नाथ का संस्कृत काव्यशास्त्र को योगदान  विषय पर इलाहाबाद विश्वविद्यालय से डी0फिल् की उपाधि  प्राप्त की। इस प्रकार महान गुरुओं के श्री चरणों मे बैठ कर उन्होंने शैक्षणिक योग्यता अर्जित की।
      अध्यापक के रूप में प्रो0 त्रिपाठी ने संस्कृत की विभिन्न प्रकार से सेवा की है।1958 से 1990 तक इलाहाबाद विश्वविद्यालय से संबद्ध कॉलेज में संस्कृत
विभागाध्यक्ष के रूप में कार्य करने के पश्चात् प्रो० त्रिपाठी ने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय वाराणासी के संस्कृत विद्या एवं धर्मविज्ञान संकाय तथा कला संकाय में दर्शन विभाग में अध्यापन का अवसर प्राप्त किया । संस्कृत विद्या धर्म विज्ञान संकाय में व्याकरण,काव्यशास्त्र और हिन्दू धर्म परंपरा के अध्यापन के साथ दर्शन विभाग में उन्होंने भारतीय
दर्शन के विभिन्न प्रस्थानों का अध्यापन किया तथा देशभर से आए छात्रों एवं विदेशों से आए अनुसंधानकर्ताओं को पढ़ाने के साथ ही  मार्गदर्शन द्वारा निर्देशित किया । इसी अवधि में उन्होंने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में आगम एवं तंत्र विभाग की स्थापना की । काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के तीन दशकों की अध्यापन अवधि में क्रमशः रीडर, प्रोफेसर एव
संकायाध्यक्ष के रूप में प्रतिष्ठित हुए। उन्होंने 1987 में जापान सरकार के आमंत्रण पर जापान की यात्रा की और  आस्ट्रिया, पोलेण्ड तथा जर्मनी आदि देशों के कई आयोजनों में उन्हें आमंत्रित किया गया । 1996 से पेरिस के सोरबोन विश्वविद्यालय में और 1999 में डेनमार्क के कोपेनहेगन विश्वविद्यालय में उन्हें अतिथि आचार्य के रूप में आमंत्रित किया गया ।उन्होंने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से 2001 में अवकाश ग्रहण किया।

    नाटयशास्त्र एवं संस्कृत रंगमंच के क्षेत्र में प्रोफेसर त्रिपाठी का योगदान उल्लेखनीय है।वे सतत मूल संस्कृत नाटकों के निर्देशन और उसमें अभिनय के क्षेत्र में सक्रिय रहे हैं। संस्कृत नाटको में उनका अभिनय 12 वर्ष की वय से आरंभ हो गया और शिवराविजय, प्रतापविजय, वेणीसंहार, मुद्राराक्षस, मृच्छकटिकम् आदि नाटकों में भाग लेते हुए उन्होंने साठ के दशक में इलाहाबाद में कालिदास अकादमी के द्वारा कालिदास के रंगमंच के लिए विशेष रूप से कार्य आरंभ किया। अभिज्ञानशाकुन्तलम् की मूल प्रस्तुति में उन्होंने दुष्यन्त के रूप में भूमिका ग्रहण की और इस नाटक का निर्देशन ' लक्ष्मी कान्त वर्मा" ने किया और पूर्ण संयोजन इलाहाबाद के सुप्रसिद्ध लेखक श्रीकृष्ण दास ने किया । इस प्रस्तुति का आवर्तन लगातार होता रहा और 1968 में बहुभाषी नाटय समारोह में श्री उत्पल दत्त की प्रस्तुति  'मानुशेरअधिकारा'और कोलकता के निर्देशक और अभिनेता विन्द्योपाध्याय की प्रस्तुति 'आमरेमञ्जरी' के
साथ किया । अभिज्ञानशाकुन्तलम् की इस प्रस्तुति का नाट्यालोक ,प्रकाश के क्षेत्र के जादूगर श्री तापस सेन ने किया, यही प्रस्तुति बाद में माधव महाविद्यालय के रंगमंच पर उज्जैन में भी आयी और आदरणीय सुमनजी ने उसे सराहा । 70 के दशक में वाराणसी के बाद प्रोफेसर त्रिपाठी ने स्वर्गीय प्रोफेसर प्रेमलता शर्मा के साथ अभिनय-भारती नामक संस्था की स्थापना की और उसमें ऋतुसंहार, मालविकाग्निमित्रम्,उत्तररामचरितम्, वेणीसंहार के अश्वत्थामांक आदि प्रस्तुतियों में न केवल भाग ग्रहण किया बल्कि सक्रिय निर्देशन में हिस्सा लिया । उज्जयिनी में कालिदास अकादमी के निदेशक के रूप में वर्ष 1981 के बीच श्री कावलम पणिक्कर तथा श्री रतन थिएम के निर्देशन में की गई विक्रमोर्वशीयम् के चतुर्थ अंक की प्रस्तुति की, जिसमें उनके निर्देशन में स्वर्गीय श्री धीरेन्द्र परमार और सुप्रसिद्ध नृत्याचार्य श्री राजकुमुद ठोलिय के साथ-साथ अनेक स्थानीय कलाकारों ने  हिस्सा लिया इसका संगीत श्री ओमप्रकाश शर्मा और स्वर्गीय प्रोफेसर प्रेमलता शर्मा के साथ किया गया जिसमें संस्कृतऔर प्राकृत की ध्रुवाओं का पहली बार उपस्थापन किया गया । इसके रंगमंच विधान के अनुसंधान में डॉ0 जगदीश शर्मा ने प्रोफेसर त्रिपाठी के साथ गहरे शोध कार्य संपन्न किये । इसके. बाद भी लगातार प्रोफेसर त्रिपाठी संस्कृत रंगमंच के क्षेत्र में अभिनय और निर्देशन के लिए ही नहीं बल्कि आधुनिक रंगमंच के निर्देशक ,रंगकर्मियों और पारंपरिक विद्वानों के बीच सेतु स्थापित करने के लिए काम करते रहे । फलस्वरूप उज्जैन में संस्कृत रंग मंच तथा आधुनिक रंगमंच को केन्द्र में रखने के लिए अविस्मरणीय योगदान किया ।
     प्रो० त्रिपाठी को 1981 में जब मध्यप्रदेश शासन ने कालिदास अकादमी के निर्देशक के रूप में आमंत्रित किया तब उन्होने कालिदास अकादमी  का निर्माण किया
तथा अकादमी में साहित्यिक एवं सांस्कृतिक गतिविधियां भी आरंभ की। डॉ0 त्रिपाठी उज्जैन में 05 वर्षों तक निदेशक के रूप में कार्य करते रहे और कालिदास अकादमी राष्ट्रीय हि नहीं अपितु अन्तर्राष्ट्रीय क्षितिज पर भी स्थापित हो गई । देशभर की सर्जनात्मक, साहित्यिक और कलात्मक गतिविधियों से कालिदास अकादमी जुड़ गई ।आधुनिक रंगकर्म का पारम्परिक रंगकर्म के साथ संबंध बना और देश के सुविख्यात रंगनिर्देशक, नृत्यांगनाएं , नर्तक, संगीतज्ञ एवं कलाकार कालिदास को केन्द्र में रखकर व्यापक रूप से जुड गये । देश  और विश्व से विद्वान कालिदास एवं नाट्यशास्त्र पर संबंधित शोध के लिए तथा कालिदास अकादमी द्वारा  आयोजित अधिवेशन में आने लगे।
     सारी दुनिया में भारतीय धर्म, प्राचीन भारतीय व्याकरण, दर्शन, नाट्यशास्त्र एवं संस्कृत रंगमंच के पारम्परिक अध्ययन को उन्होंने प्रचारित किया है और इस क्षेत्र में उनका महत्वपूर्ण योगदान है |1987 में जापान सरकार के आमंत्रण पर उन्होंने टोक्यो की यात्रा की और अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन में भाग लेने के बाद यहीं से शिन्तो धर्म के केन्द्रों का अध्ययन –अनुशीलन किया और जापान के विश्व प्रसिद्ध भारत विद्याविदों के साथ उनका संबंध बना । इसी वर्ष हॉलैण्ड के विश्व संस्कृत सम्मेलनों में भी उन्होंने भाग लिया और वहां से बेल्जियम और फ्रांस की यात्राएं भी की । इस क्रम में प्रो०त्रिपाठी ने आगामी वर्षों मे पोलैण्ड में क्रेको में संपन्न विश्व संस्कृत सम्मेलन में भी सत्रों की अध्यक्षता की और अपने शोधपत्र प्रस्तुत किये । इसी तरह पेरिस मे सोरबोन
विश्वविद्यालय ने तथा डेनमार्क में कोपेनहेगेन विश्वविद्यालय ने, स्वीडन में माल्मों विश्वविद्यालय ने प्रो० त्रिपाठी को विजिटिंग प्रोफेसर के रूप में आमंत्रित किया । प्रो० त्रिपाठी ने थाईलण्ड में अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन में भी भाग लिया । पिछले वर्ष उन्होंने स्पेन और चीन की यात्राएं की।
        प्रोफेसर त्रिपाठी संस्कृत काव्य के लिए भी सक्रिय रहे और काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में कविभारती के सचिव के रूप में उन्होंने बारह वर्षों तक अनवरत कार्य
किया । संस्कृत कवि के रूप में उनकी एक अलग शैली है । प्रो.त्रिपाठी ने बच्चों केय लिए महाकवि कालिदास व महाकवि बाणभट्ट और पंचतंत्र पर लेखन का 1968 से
लगातार कार्य आरंभ किया । 1962 में उन्होंने
 ' अमरूशतकम्' का वैज्ञानिक सम्पादन
किया । हिन्दी में काव्यानुवाद किया जो बाद में हिन्दी में वर्ष की सर्वोत्तम रचना के रूपय में प्रशंसित हुई । किरातार्जुनीयम् के कुछ सर्गों पर उन्होंने समालोचनात्मक कामय किया जो अपनी तरह का पहला आंरभ था । सारे देश में भारतीय संस्कृत, दर्शन,
संस्कृत साहित्य, संस्कृत रंगमंच और नाटयशास्त्र पर उनके व्याख्यान होते रहे हैं ।संस्कृत रंगमंच पर इनके व्याख्यानों का अंग्रेजी भाषा का पाठ श्री राम आर्ट सेन्टर नई दिल्ली द्वारा प्रकाशित किया जा चुका है । नाट्यशास्त्र के प्रथम अध्याय केय अभिनवभारती का अंग्रेजी अनुवाद प्रकाशनाधीन है । अभिनवगुप्त के परमार्थसार और उस की विवृति पर उनका अंग्रेजी अनुवाद इंग्लैंड के प्रतिष्ठित प्रकाशक के द्वारा
प्रकाशित हो रहा है ।भर्तहरि के वाक्यपदीय पर उनका काम प्रकाशन की ओर अग्रसर है । उनके दर्जनों शोध निबंध राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलनों में भारतीय भाषा,दर्शन, सौन्दर्यशास्त्र, आगम शास्त्र और नाट्यशास्त्र पर प्रस्तुत किए जा चुके है और देश विदेश के प्रतिष्टित जर्नलों में प्रकाशित किये जा चुके है । नाट्यशास्त्र के समालोचनात्मक संस्करण और हिन्दी तथा अंग्रेजी में अनुशीलन की कालिदास अकादमी
द्वारा प्रवर्तित योजना में वे प्रधान संपादक के रूप में काम कर रहे हैं । इसके विभिन्न भाग अब प्रकाशित होने आरंभ हो गये है । उनके व्याख्यानों और शोधपत्र का फ्रांसीसी एवं जापानी भाषाओं में अनुवाद हुआ । उनके लेखों का प्रकाशन पोलेण्ड की शोध पत्रिकाओं में भी हुआ । इस तरह स्वदेश और विदेश में भारतीय विद्या के आचार्य और संस्कृत रंगमंच एवं नाट्यशास्त्र के व्याख्याता के रूप में उनको विशेष आदर मिला है ।
सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय  विद्वत् सम्मान, राष्ट्रीय संस्कृत संस्थान मानित
विश्वविद्यालय, दिल्ली के द्वारा प्रदत्त विद्वत् सम्मान, ज्ञान सम्पदा न्यास, नयी दिल्ली के
द्वारा प्रदत्त विद्वत् सम्मान तथा देश की अन्य ऐसी कई संस्थाओं द्वारा दिय गये सम्मानों से उन्हें सम्मानित किया गया है ।
     गत वर्ष साहित्य अकादमी, नई दिल्ली ने उन्हें संस्कृत साहित्य से किये अनुवाद तथा संस्कृत की व्यापक सर्जनात्मक उपलब्धि के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार से पुरस्कृत किया ।
     जिस प्रकार नल ने अधीति, बोध ,चारण ,प्रचारण के द्वारा चतुर्दश विद्याओ को छप्पन 56 प्रकार का बना दिया (2)उसी प्रकार प्रो0 त्रिपाठी ने पारम्परिक ज्ञान को
आधुनिक ज्ञान  के साथ संयुक्त कर तथा शास्त्र को प्रयोग के साथ अन्वित कर संस्कृत को अनेक नये आयाम प्रदान किये।
**********
सन्दर्भ -
1-पता-
निदेशक,
कालिदास अकादमी,
विश्वविद्यालय मार्ग
उज्जैन-456010
फोन0-0734-2515404(0) & Fax
2515405(R)
e-mail: kalidasa@sancharnet.in
visit usat:www.kalidasaakademi.org
2-अधीतिबोधचारणप्रचारणै
र्दशाश्चतस्त्रः प्रणयन्नुपाधिभिः
चतुर्दशत्वं कृतवान् कुतः स्वयं
न वेद्यमि विद्यासु चतुर्दश् ।।
नैषधीयचरितम्-1-4



**ज्ञानायनी भारत के मनीषी विशेषांक ,(वर्ष 3 संयुक्तांक (3 -4 )2006 सम्पादक डा.शिशिर कुमार पाण्डेय ,लखनऊ )में प्रकाशित लेख 

श्री जयशंकर प्रसाद की " अयोध्या का उद्धार "कविता पर कालिदास का प्रभाव

             हिंदी के मूर्धन्य कवियों में श्री जयशंकर प्रसाद का नाम अत्यधिक आदर के साथ  लिया जाता है । वे छायावादी कवि हैं । प्रसाद जी की " कामायनी "हिंदी साहित्य में  विशिष्ट स्थान रखती है  । उन्होंने जो ख्याति काव्य  के क्षेत्र में प्राप्त 

की वही नाटकोंकहानियों, निबंध उपन्यास के क्षेत्र में भी प्राप्त की । 

 
   जयशंकर प्रसाद की रचनाओं में लौकिक जीवन की अनुभूतियों के साथ उनका चिंतन भी समाहित था जो निःसंदेह उन्हें संस्कॄत ग्रंथों के अध्ययन से प्राप्त हुआ था ।   कामायनी जो प्रसाद जी की सर्वश्रेष्ठ कॄति है, का मूल स्रोत पौराणिक है किंतु उस  कथा को प्रसाद जी ने अने मौलिक चिंतन वं कल्पना के समन्वय से ही ल्लवित  किया है । कामायनी की पांडुलिपि   में प्राप्त संदर्भ संकेतों से स्पष्ट  होता है कि निषद  ,  शतब्राह्मण , भागवत इत्यादि ग्रंथों का अध्ययन मात्र ही प्रसाद जी ने नहीं  किया पितु इन पर लिखित भाष्य- उदाहरणार्थ सायण भाष्य का भी गहन अध्ययन प्रसाद जी  ने 
किया ।(1)

      संस्कॄत ग्रंथों में भी जयशंकर प्रसाद, कालिदास से विशेष प्रभावित दिखाई  पड़ते  हैं । कालिदास के ऋतुसंहार, रघुवंशम् वं अभिज्ञान शाकुन्तलम्  आधारित अनेक  कवितायें  इसकी प्रमाण है । ऋतुसंहार के समान ही इन्होंने शरद(2) ,वर्षा(3),  ग्रीष्म(4) ,बसंत(5) ,मेघ(6) इत्यादि र कवितायें  लिखी है ।

     “ वन मिलन (7)  नामक कविता अभिज्ञान शाकुन्तलम् के सप्तम अंक र आधारित है । इसी प्रकार अयोघ्या का उद्धार (8) कविता कालिदास के रघुवंशम् के षोडश सर्ग पर आधारित है  ।  

     प्रस्तुत शोधपत्र में मैं प्रसाद जी द्वारा रचित “ अयोध्या का उद्धार “ नामक कविता  पर कालिदास द्वारा रघुवंशम्  के षोडश सर्ग में वार्णित “ कुश-कुमुदवती रिणय “ के  कथानक का प्रभाव स्पष्ट  करूंगी ।  

   महाराज रामचंद्र के रमधाम धारने के श्चात्  कुश को कुशावती और लव को  श्रावस्ती या शरावती राज्य मिला । अतव अयोध्या नगरी वैभवहीन हो गई । वाल्मीकि  रामायण के अनुसार (9) बाद में किसी ऋषभ नामक राजा के द्वारा उसे पुनः स्थापि  करने का विवरण मिलता है किंतु महाकवि कालिदास ने अयोध्या का उद्धार कुश के द्वारा होना लिखा है । विद्वान्  उत्तर कांड को प्रक्षिप्त मानते हैं अतव यह संभावना की  जा सकती है कि कालिदास के समय में ऋषभ के द्वारा अयोध्या का उद्धार होना प्रसिद्व  न रहा हो ।

   इस घटना का तिहासिक महत्व कितना है यह नहीं  कहा जा सकता किंतु  प्रसाद जी ने कालिदास के वर्णन को ही प्रामाणिक मानते हु उस कथानक का शतशः  अनुसरण दिया है जिसका निरू वं समानता द्रष्टव्य  है ।

    रघुवंशम्  के अनुसार लक्ष्मण के स्वर्गवासी हो जाने पर रामचंद्र ने कुश को  कुशावती वं लव को शरावती का राजा बनाया । तदनन्तर ग्निहोत्र की ग्नि आगे  करके अने भाईयों के साथ राम उत्तर की ओर चल पड़े  । अयोध्यावासियों ने जब यह  सुना तो वे भी प्रेमवश घरों को छोकर उनके साथ हो लि । तदनन्तर राम विमान पर  चढकर स्वर्ग चले गये तथा सरयू को उन्होंने अपने पीछे आने वालों के लिये स्वर्ग की  सीढी बना दिया अर्थात्  जो सरयू में स्नान करता था वह तुरंत स्वर्ग चला जाता था  इसलिये स्वर्ग में इतने लोग पहुंच गये कि सामर्थ्यशाली राम को देवपद प्राप्त  अयोध्यावासियों को रहने के लिये क दूसरा ही स्वर्ग बनाना पडा   परिणामस्वरूप   अयोध्या अनाथ हो गई। (10)  
इसके पश्चात्  कुमुदवती परिणय नामक षोश सर्ग के अनुसार एक दिन आधी  रात के समय जब शयनकक्ष में दीपक टिमटिमा रहा था और सब लोग सोये हुए  थे तब  कुश को सी स्त्री दिखाई दी जिसे उन्होंने पहले कभी नहीं  देखा था
“ कुश-कुमुदवती रिणय “ का वर्णन  देखिये -

  अथार्धरात्रे स्तिमितप्रदीपे शय्यागॄहे सुप्तजने प्रबुद्धः ।

कुशः प्रवासस्थकलत्रवेषामदृष्टपूर्वा वनितामपश्यत 

                                    रघु0 16/4
 

कालिदास द्वारा वार्णित उपर्युक़्त कथानक का अनुसरण प्रसाद जी ने “ अयोध्या  का उद्धार “ में इस प्रकार किया है-

  
विविध चित्र बहु भांति के लगे
मणि जडाव चहुं ओर जो जगे ।
महल मांहि बिख्ररावती विभा
मधुर गन्धमय दीप  की शिखा ।
कुशराज कुमार नींद में
सुख सोये शुचि सेज पै तहां ।
बिखरे चहु  ओर पुष् के
सुखम सौरभ पूहै  जहां ।।......  
पुतरी पुखराज की मनो  
सुचि सांचे महं ढारि के बनी ।
उतरी कोउ देव-कामिनी
छवि मालिन्य विषाद सों सनी ।।

 

 
तत्श्चात  कालिदास के अनुसार कुश उससे बोले-तुम कौन हो ? तुम्हारे पति  का क़्या नाम है और मेरे पास किस काम से आई हो ? लेकिन तुम यह समझकर कुछ  मत कहना कि रघुवंशियों का चित्त पराई  स्त्री की ओर आकॄष्ट नहीं  होता – कालिदास कहते हैं -

  का त्वं शुभे । कस्य परिग्रहो वा किं वा मदभ्यागमकारणं ते
आचक्ष्व मत्वां वशिनां रघूणां मनः परस्त्रीविमुखप्रवॄतिः ।।
रघु0 16/8
प्रसाद जी ने सा ही वर्णन इन शब्दों में किया है -
 

“ देवि । नाम निज धाम,
काम कौन ? मोते कहौ ।
अरू तुम येहि आराम-
मांहि आगमन किमि कियो ?
“ तुम रूप -निधान कामिनी
यह जैसी विमला सुयामिनी ।
रघुवंशहि जानिहो सही
परनारी पर दीठ दे नहीं  ।।
“ तुम क़्यों बनी अति दीन ?
क़्यों मुख लखात मलीन ?
निज दुख मोंहि बताउ
कछु करहुं तासु उपाउ ।।

     तदनन्तर स्त्री बोली- भगवान  राम जब बैकुण्ठ जाने लगे तब इस निर्दोष  अयोध्यापुरी के निवासियों को भी साथ लेते गये । हे राजन । मैं उसी अनाथिनी  अयोध्यापुरी की अधिष्ठात्री देवी हूं । पहले सुशासन के कारण मैं इतनी श्वर्यशालिनी  हो गई थी कि मेरे आगे कुबेर की अलकापुरी भी फीकी लगती थी । 

   इस प्रसंग में भी  दोनों कवियों के वर्णन में साम्य देखिये -

तमब्रवीत्सा गुरूणाsनवद्या या नीतपौरास्व पदोन्मुखेन ।  

तस्याः पुरः सम्प्रति वीतनाथां जानीहि राजन्नधिदेवतां माम  ।।
वस्वौकसारामभिभूय साsहं सौराज्यबद्धोत्सवया विभूत्या ।

समग्रशक़्तौ त्वयि सूर्यवंश्ये सति प्रपन्ना करूणामवस्थाम  ।।
रघु
0 16/9-10
 
 

अब प्रसाद जी द्वारा किया  वर्णन  देखिये -

“ तुम सुमति सुधारी ईश पीरा निवारी  
अब सुनहु विचारी है, कथा जो हमारी ।।
“ सुख समॄद्धि सब भांति सो मुदा
रहत पूर नर नारि ये मुदा ।
अवध राज नगरी सुसोहती
लखत जाहि अलकाहु मोहती ।।
“ इक्ष्वाकु आदिक की विमल

कीरति दिगन्त प्रकासिता ।
सो भई  नगरी नागकुल-
आधीन और विलासिता ।।
नहि सक़्यौ सहि जब दुःख
तब आई   अहौ लै कै पता ।
सो मोहि जानहु हे नरेन्द्र ।
अवध नगर की देवता ।।

 

  तत्श्चात  अयोध्या की देवी, अयोध्या का वर्णन अनेक उपमाओं के माध्यम से  करती है कि वह अयोध्या पहले अत्यधिक वैभवशाली थी किंतु अब वह सी श्रीहीन हो  गई है । इसका भी प्रसाद जी ने उसी प्रकार अनुकरण किया है उदाहरणार्थ-

 निशासु भास्वतकलनूपुराणां यः सञचरो s भूदभिसारिकाणाम् 
नन्दन्मुखोल्काविचितामिषाभिः स वाह्रदयते  राजपथः शिवाभिः
वही  16/12
 

अब प्रसाद जी द्वारा किया  वर्णन  देखिये -

 

जहं लख्यो विपुल मतंग
तुंग सदा झरै मदनीर को ।
तहं किमि लखै बहु बकत

व्यर्थ श्रॄगालिनी के भीर को ।।

       अयोध्या का उद्धार

 अन्त में कुमुदवती कहती है कि आप  इस नयी राजधानी कुशावती को त्यागकर  अपनी कुल परम्रा की राजधानी अयोध्या में चलकर निवास करें । कुश ने उसकी  प्रार्थना स्वीकार करते हुए  कहा कि सा ही करेंगे ।  
 

तदर्हसीमां वसातिं विसॄज्य मामभ्युपैतुं कुलराजधानीम 
हित्वा तनुं कारणमानुषी तां यथा गुरूस्ते परमात्ममूार्तिम  ।।
तथेति तस्याः प्रणयं प्रतीतः प्रत्यग्रहीत  प्राग्रहरो रघूणाम 
पूरप्यभिव्यक़्तमुखप्रसादा शरीर बन्धेन तिरोबभूव ।।  
रघु0 16/22-23
 

अब प्रसाद जी द्वारा अयोध्या का उद्धार “ में किया  वर्णन  देखिये -

रघु दिलीप , अंज आदि नॄप ,
दशरथं राम उदार ।
पाल्यो जाको सदय है ,
तासु करहु उद्धार ।।
निज पूर्वज-गन की विमल
कीरति हू वचि जाय ।
कुमुद्वती सम सुन्दरी,
औरहु लाभ लखाय ।।
सुनि, बोले वरवीर
“ डरहुं न नेकहु चित्त में
धरे रहौ उर धीर,
काल्हि उबारौं अवध को “ ।।
  अयोध्या का उद्धार “

 

रात की घटना राजा ने सबेरे सभा में ब्राह्मणों से कही जिसे सुनकर ब्राह्मणों  ने कुश की प्रशंसा की । तदन्तर उन्होंने कुशावती नगरी वेदपाठी ब्राह्मणों को दान  करके दे दी और शुभ मुहूर्त में अयोध्या की ओर चल पडे  ।  
 

कुशावती  श्रोत्रियसात  स कॄत्वा यात्रानुकुले s हनि सावरोधः ।
अनुद्रुतो वायुरिवाभ्रवॄन्दैः सैन्यैरयोध्याभिमुखः प्रतस्थे ।।
 
रघु
0 16/25

प्रसाद जी ने इस घटना का वर्णन निम्न शब्दों में किया है-

भोर होत ही राजसभा में
बैठे रघुकुल राई ।  
प्रजा, अमात्य आदि सबही ने
दियो अनेक बधाई  ।।
श्रोत्रिय गनहि बुलाई ,सकल

निज राज दान कै दीन्हयो ।
और कटक सजि, अवध नगर  
के हेतु पयानो कीन्हयो ।।
अयोध्या का उद्धार “
 

    इसके पश्चात  प्रसाद जी ने कालिदास के कथानक में थोडा  परिवर्तन करके  वर्णन किया है । यद्यपि  कालिदास और जयशंकर प्रसाद दोनों का ही उद्देश्य कुमुदवती  के साथ कुश का परिणय है किंतु इस परिणय के मध्य कथानक में थोडा  परिवर्तन  दिखाई ता है  जो द्रष्टव्य  है -
कालिदास के अनुसार कुश की आज्ञा से कारीगरों ने अयोध्या को नया रूप  दे  दिया तथा कुश अयोध्या के राजमहल में प्रविष्ट हो गये । एक दिन कुश अपनी रानियों  के साथ सरयू के जल मे विहार करने लगे । जल क्रीडा  करते समय जैत्र आभूषण जो  अगत्स्य षि ने राम को तथा राम ने राज्य के साथ ही कुश को दिया था पानी में गिर  गया । उन्होंने सब धीवरों को वह आभूषण ढूढने  की आज्ञा दी । बहुत परिश्रम करने पर भी आभूषण नहीं  प्राप्त हुआ तब धीवरों ने कुश से कहा कि लगता है कि इस जल में  रहने वाले कुमुद नामक नाग ने उसे लोभवश चुरा लिया है यह सुनते ही कुश क्रुद्ध  हो  गये और उन्हें गारूडास्त्र चढा  लिया । तभी हाथ में वह आभूषण लिये तथा एक कन्या  को आगे किये नागराज कुमुद बाहर निकला तथा कुश को प्रणाम कर कहने लगा कि  यह कन्या गेंद खेल रही थी इसकी थपकी से गेंद ऊपर उछल गई  । उसे देखने के  लिये इसने ऊपर आंख उठाई   तो देखा कि आप का आभूषण नीचे चला आ रहा है बस  इसने इसे पक लिया अब आप  इस आभूषण को धारण करिये तथा मेरी छोटी बहन  कुमुदवती जीवन भर आप की सेवा करके अपने अपराध का मार्जन करना चाहती है  अतएव आप  इसे अपनी पत्नी के रूप  में स्वीकार कर लें । तत्श्चात  कुमुदवती के साथ  कुश का परिणय हुआ तथा कुश पृथ्वी  पर यथावत  शासन करने लगे ।(11)
प्रसाद जी के अनुसार जब कुश की सेना अवध की सीमा के समीप  पहुंची तब  उन्होंने कुमुद के पास अपने दूत को भेजा । कुमुद तुरंत ही सेना लेकर आ पहुंचे । दोनों  सेनाओं के मध्य युद्ध होने लगा । कुश के प्रभाव से हीन होकर कुमुद अत्यधिक रमणीय  कुमुदवती और धन रत्नादि साथ लेकर कुश के समीप  जाकर बोले कि इससे विवाह कर  राज्य लीजिये । तत्श्चात  कुश और कुमुदवती का विवाह हुआ तथा सबके सन्ताप  दूर  करते हुए  कुश सिंहासनारूढ़ हुए  तथा अवध नगर में सुख एवं महासुषमा छा गई -


कुल लक्ष्मी परताप  
लख्यो सबै सुखमय नगर ।
मिटयो सकल सन्ताप   
बैठे सिंहासन तबै ।।
कुश कुमुद्वती को परिणय
सबको मन भायो ।  
अवध नगर सुखसाज
महा सुखया सो छायो ।। 

          अयोध्या का उद्धार “
 

   अतः स्पष्ट  है कि कालिदास के अनुसार कुश के सिंहासनारूढ  होने के पश्चात   कुमुदवती से उनका परिणय हुआ किंतु प्रसाद जी के अनुसार कुमुदवती से परिणय के  पश्चात  ही वे सिंहासनारूढ़ हुए  

उपरोक़्त विवरण से स्पष्ट  है कि श्री जयशंकर प्रसाद पर कालिदास का स्पष्ट   प्रभाव दिखाई पडता है । कालिदास के समान ही प्रसाद जी ने काव्य , गीतिकाव्य  एवं  नाटक सभी विधाओं में रचना की । जहां कामायनी में पौराणिक आख्यानों एवं उद्धरणों  को आधार बनाकर उसे कल्पना  से पल्लवित पुष्पित  किया है एवं वाल्मीकि  रामायण की  पेक्षा की है वही कालिदास की कथावस्तु शतशः अनुसरण कर प्रसाद जी ने तूलिका के नये रंगों द्वारा चित्रित किया है जो निाश्चित रूप  से प्रसाद जी का कालिदास के प्रति  सम्मान एवं श्रद्धाजंलि को अभिव्यक्त  करता है ।
 

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संदर्भ सूची- -  
 
1.
प्रसाद ग्रंथावली – पृ नं0 402,403 लोकभारती प्रकाशन 15  महात्मा  गांधी मार्ग इलाहाबाद 1977
2.
वही चित्राधार- शारदीय शोभा - पृ 42, 58
3.
वही वर्षा - पृ 48
4. –
वही “ - कानन कुसुम ग्रीष्म का मध्याहन- पृ 163
5. -
 वही“ -कानन कुसुम-नव बसंत पृ 159 

6. - वही“ -कानन कुसुम-जलद आहवान - पृ 164 

7. - वही“ -चित्राधार- पृ नं0 17 

8. - वही“ -चित्राधार - पृ संख्या  

9.वाल्मीकि रामायण उत्तरकांड 111/10
10
रधुवंशम  15/95-102
11.
रघुवंशम  16/26-88  
 

 

पुनर्नवा –अखिल भारतीय कालिदास समारोह के अवसर पर  प्रकाशित स्मारिका २००९ ,

कालिदास संस्कृत अकादमी ,मध्य प्रदेश संस्कृति परिषद् ,उज्जैन से प्रकाशित

पंचतंत्र का इतिहास -विश्व में पंचतंत्र की कहानियाँ कैसे फैलीं

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